शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

"अस्वागतम प्रधानमंत्री जी"

प्रिय / (अ)लोकप्रिय प्रधानमंत्रीजी,
आपको एक दिलचस्प घटना-क्रम बताता हूँ. जैसा कि सबको पता है कि आप कल अपने पावन चरणों को हमारे संस्थान आई.आई.टी. कानपुर और शहर के एक अन्य स्थान में रखकर और अपनी खास सुरक्षा के कारण हम जैसे आम छात्रों और नगरवासियों को भरपूर परेशान करेंगे; मैंने विचार किया था कि आपको एक ज्ञापन के माध्यम से अपनी और अपने देशवासियों कि समस्याओं से अवगत कराऊंगा. अतः मैंने क्या माँगे दी जाए इस पर एक मित्र से विचार करना प्रारंभ किया. मेरे मित्र ने जो पहली बात कही वो आँखे खोलने वाली थी. उसने कहा "माँगों पर बाद में विचार करेंगे, पहले ये बताओ कि, तुमको क्या लगता है, मनमोहन जी को माँगे सौपने से कोई फायदा होने वाला है?". मैं इस प्रश्न पर निरुत्तर रह गया. मैं खुद ऐसा एक फायदा नहीं सोच पा रहा था, जो आपको माँगे सौपने से हो.
यह बात काफी समय तक मेरे दिमाग में घूमती रही. आखिर प्रधानमंत्री से भी कोई उम्मीद न होना लोकतंत्र के लिए कतई शुभ नहीं है. मैंने एक बात सीखी है और मैं आपसे वो बात कहना चाहता हूँ... नेतृत्त्व का सबसे बड़ा कार्य अपनी जनता को कुछ देना होता है, तो वह है - आशा देना... उम्मीद देना... और अगर नेतृत्त्व यह देने में विफल रहता है तो वह अपने नेतृत्त्व करने के अधिकार को खो देता है. एक प्रधानमंत्री के तौर पर आपका सबसे ज्यादा उत्तरदायित्व देश कि जनता के प्रति है, क्या आप उसको निभा पा रहे हैं? कहा जाता है कि भले ही सत्ता कुछ करे नहीं, पर कम से कम करती नजर तो आनी चाहिए ताकि लोगों कि आशाएं तो बची रहें, अफ़सोस अब वो भी नहीं बची हैं.
मुझे यह कहते हुए अफ़सोस है कि कम से कम मेरी तरफ से आपका स्वागत नहीं है. इस वक़्त मैं आपसे कुछ और ही करने कि अपेक्षा करता हूँ. देश संकटों से गुजर रहा है, ऐसी राजनीतिक निराशा जो आज हर ओर पसरी पड़ी है, पहले कभी न थी. आप विमानों में उड़ते हैं, वातानुकूलित कक्षों में बैठकें करते हैं, आप कैसे जानेंगे कि देश का आम आदमी किस व्यथा से गुजर रहा है. मैं यह पत्र उस आदमी कि तरफ से लिख रहा हूँ, जो माल बन चुका है. मतलब जैसा कि आप कहते नहीं हैं, कि हमारे पास बहुत ज्यादा मानव संसाधन है, वो वाला नहीं; बल्कि वो वाला जो ट्रेन के किसी जनरल डिब्बे में माल कि तरह ठूँसकर एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाया जाता है. वो जो दो वक़्त का खाना भी अपने बच्चों को न दे पाने के कारण रोता है, और तब और भी ज्यादा रोता है जब आप १६ % की दर से बढ़ती महंगाई के आकड़ों को छुपाकर, केवल ये बताते हैं कि औसत आय १०% बढ़ गयी है. मैं आपकी तरह अर्थशास्त्री तो नहीं हूँ, पर मुझे तो यही लगता है कि आय जब मंहगाई से तेज बढ़े, तब विकास होता है, नाकि तब, जब मंहगाई ज्यादा तेजी से बढ़ रही हो.
प्रधानमंत्री जी! देश में बहुत सी समस्याएँ हैं. कभी इन पर भी गौर फरमा लिया कीजिये, बजाय के G-20 की बैठक में मिली तारीफों से खुश होने के. रोज माओवादी जान ले रहे हैं. छत्तीसगढ़ से लेकर झारखण्ड के जंगलों में मरने वाले सी.आर.पी.एफ. के जवान हमारे ही देश के किसानों के बच्चे हैं. उबल रहा कश्मीर भी अपने ही देश का हिस्सा है. पर नजर ही नहीं आ रहा है की सरकार जिसके की आप प्रमुख हैं, कुछ कर रही है; करने की तो छोड़िये, ये भी नहीं लग रहा है की वो कुछ करने की सोच भी रही है. पाकिस्तान को लेकर तो खैर कोई नीति है ही नहीं आपके पास और लगता है कि उस नीति को ७, रेसकोर्स रोड कम, व्हाइट हॉउस के बयान ज्यादा निर्धारित करते हैं.
प्रिय प्रधानमंत्री जी! कम से कम कुछ ऐसा तो करिये कि हमें लगे कि आप कुछ करना भी चाहते हैं. वरना लगता है कि इस देश को सरकार कम और भगवान ज्यादा चला रहे हैं; और मुरली देवड़ा जैसे आपके मंत्री भी हमसे इश्वर से दुआ मांगने कि बात कह चुके हैं. आखिर में वही बात फिर से कहूँगा कि आप को देखकर कम से कम हमारी आशाएं तो जगनी चाहिए. अफ़सोस! ऐसा नहीं हो रहा है, आपका नेतृत्व विफल रहा है, और इसलिए मैं आपसे उम्मीद करता हूँ कि कृपया लोकतंत्र के इस सबसे उच्च पद को त्याग दीजिये. और हाँ आपका स्वागत नहीं है.

एक आम भारतीय छात्र
आई.आई.टी. कानपुर

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